Tuesday, May 4, 2010

अभ्यास का फल: अर्जुन

गुरु द्रोणाचार्य कौरवों  और पांडवों को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा देते थे। उन राजकुमारों के साथ
उनका बेटा अश्वत्थामा भी शिक्षा ले रहा था।
वह चाहते थे कि उनका बेटा अस्त्र-शस्त्र की विद्या में सभी राजकुमारों से आगे रहे। लेकिन अर्जुन
के सामने वह बहुत पीछे छूट रहा था। द्रोण ने कई तरकीबें निकालीं।

कोई न कोई बहाना बना कर वह राजकुमारों को कुछ समय के लिए बाहर भेज देते और अकेले में
अश्वत्थामा को नई विद्या सिखाते थे। फिर भी वह पीछे रह जाता। अर्जुन आचार्य की चालाकी
समझ रहा था, लेकिन कुछ कह नहीं पा रहा था। एक दिन रात को अर्जुन भोजन कर रहा था कि
हवा का झोंका आया और दीया बुझ गया। उसे अंधेरे में ही भोजन करना पड़ा। तब उसका ध्यान इस
बात पर गया कि अंधेरे में हाथ हर बार थाली में अन्न पर ही पड़ता था और कौर भी मुंह के भीतर
ही जाता था। ऐसा हमारे अभ्यास के कारण होता है। मतलब यह कि अभ्यास से कुछ भी हासिल
किया जा सकता है। दूसरे दिन से अर्जुन ने रात के अंधेरे में चुपचाप बाण चलाने का अभ्यास शुरू कर
दिया।

एक रात धनुष की टंकार सुन द्रोण की आंख खुल गई तो उन्होंने अर्जुन को अभ्यास करते देख लिया।
उसके दृढ़ निश्चय को देख कर द्रोण समझ गए कि अश्वत्थामा अर्जुन की बराबरी कभी नहीं कर
पाएगा। अपने को पीछे छूटता देख कर एक बार अश्वत्थामा ने द्रोण से कहा, 'पिताजी, हमसे
ज्यादा आप अर्जुन को चाहते हैं।' द्रोण ने कहा, 'पुत्र तुम्हारा संदेह गलत है। मेरे पास जितना
भी ज्ञान था, उसे मैंने तुम्हें दे दिया। तुम समझते हो कि शिक्षा देने से ही ज्ञान हासिल होता
है। नहीं, गुरु केवल मार्ग दिखाता है। रास्ता खोजने का काम शिष्य का होता है।' उन्होंने रात
में अर्जुन के अभ्यास का जिक्र करते हुए कहा, 'पुत्र, अर्जुन ने अपना रास्ता खोज लिया है। उसे
कोई पछाड़ नहीं सकता।'